हिंद स्वराज का दुर्बल पक्षडॉ. लोहिया ने 1963 में लिखा था, गांधी जी ने दार्शनिक और कार्यक्रम-संबंधी उदारवाद का जो मेल बिठाया, उसका मूल्यांकन करने का समय शायद अभी नहीं आया है।...अधिकांश देशवासी आजादी की प्राप्ति को ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानते हैं। दरअसल वह कोई उपलब्धि नहीं है। उनके बिना भी देश अपनी आजादी हासिल कर लेता...उनके रहते कौम और देश का बंटवारा हुआ। कुछ विवेकशील विदेशियों की राय में गांधी दुःखी, पीड़ित और दबे हुए लोगों की सच्ची आवाज थे।...लेकिन इस शताब्दी में और भी ऐसी आवाजें, ज्यादा सशक्त और उद्देश्यपूर्ण रही हैं।
मूल्यांकन का समय कब से आकर बैठा हुआ है। किंतु अधिकांश बुद्धिजीवी इस चिंता से ही मुक्त हैं। पिछले वर्ष हिंद स्वराज की शती मनाते हुए जयकारे के सिवा कुछ सुनाई न पड़ा। यह वर्ष हिंद स्वराज के अंगरेजी संस्करण की शती है। हालांकि इस संस्करण में उन्होंने स्वयं कुछ बातें हटा दीं और कुछ को किंचित बदला था। जैसे, हिंदी संस्करण के अध्याय 9 में अंकित है, कहा जाता है कि हिंदू-मुसलमानों में कट्टर बैर है। हमारी कहावतें भी ऐसी ही हैं। आगे अध्याय 10 में, अगर हिंदू मानें कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए।...दुनिया के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र का अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है।
दोनों रेखांकित पंक्तियां गांधी जी ने हिंद स्वराज का अंगरेजी अनुवाद करते हुए हटा दी हैं। क्यों? यह इतिहास का व्यंग्य ही है कि जिस बात को गांधी जी ने ‘सपना’ कहा था, और इसे संवेदनशील (?) समझ अंगरेजी में हटा दिया, वही बात 1947 में फलीभूत हुई! यही नहीं, गांधी ने सत्य झुठलाने की भी कोशिश की। अमेरिका, अरब और यूरोप के कई देशों में ईसाइयत और इसलाम ने बलपूर्वक एक राष्ट्र में एक धर्म को स्थापित किया है।
अध्याय 10 में ही लिखा गया है, अगर मैं वाद-विवाद करूंगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूंगा, तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमूंगा, तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर न भी नमे, तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा। स्वयं गांधी ने अनेक मुसलिम भाइयों से वह नहीं पाया, जिसका दावा ऊपर की पंक्तियों में है। उलटे, ‘बालिश्त भर झुकने’ का परिणाम मुसलिम नेताओं द्वारा हाथ भर और लेने की जिद में बदलता गया। जिस नमने से असंख्य भोले देशवासियों की गरदन नप जाए, उसे सही कैसे कहा जा सकता है!
इसी तरह किसी नितांत अप्रमाणित बात को भी वह स्वयंसिद्ध मानकर पाठकों पर थोपते थे। जैसे, अध्याय 17 देखिए, सत्याग्रह सबसे बड़ा, सर्वोपरि बल है। वह जब तोपबल से ज्यादा काम करता है, तो फिर कमजोरों का हथियार कैसे माना जाएगा? सत्याग्रह के लिए जो हिम्मत और बहादुरी चाहिए, वह तोप का बल रखने वाले के पास हो ही नहीं सकती। क्या राणा सांगा, राणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह, शिवाजी जैसे लड़ाके बहादुरी में हीन थे?
सच यह है कि सत्याग्रह-अहिंसा की धारणा का गांधी के लिए एक विशिष्ट, रहस्यमय किस्म का अर्थ था। उन्होंने कहा भी था कि सत्याग्रह के सिद्धांत को उनके अलावा कोई नहीं समझता। अतः अहिंसा-सत्याग्रह गांधी जी के साथ ही समाप्त हो चुका। आज कोई गांधीवादी किसी माओवादी, जेहादी या भ्रष्टाचारी से कोई दलील करने नहीं जाता। यह गांधीवादियों की नहीं, गांधीवाद की कमी है
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